समूचे उत्तर भारत में जिस बाजरे को सिर्फ कड़कड़ाती ठंड में ही खाया जाता है, उसे दिन में 50 डिग्री सेल्सियश तक तापमान वाले राजस्थान के थार रेगिस्तान में बारह मास खाया जाता है। हालांकि अब इस परिपाटी से थार के शहरी तथा कस्बाई इलाके दूर हो गए हैं लेकिन ठेठ गांवों में आज भी बाजरे को चाव से मुख्य अनाज के रूप में खाया जाता है। उम्र के 8 दशक पार कर चुके मरुस्थलीय कस्बे राजलदेसर (जिला चूरू) के प्रबुद्ध पत्रकार कुंदन शर्मा ने hindiheadline.com से यह रहस्य साझा किया कि जिस बाजरे को गर्मी में खाने से भारत के अधिकांश इलाके कतराते हैं, उसे रेगिस्तान के गांवों में आज भी बारह मास दोनो वक्त खाया जाता है और उन्हें 50 डिग्री से अधिक सेल्सियश तापमान की गर्मी में भी कैसे स्वस्थ रखता है।
अधिकांश घरों में बनती थी बाजरे की रोटी
कुंदन शर्मा के अनुसार एक जमाना था जब लोग दही-रोटी या कढ़ी-रोटी का सुबह-सुबह भरपेट कलेवा करके दिन की शुरुआत करते थे। खूब शारीरिक मेहनत करने वालों का यह मुख्य नाश्ता था। बाजरे की रोटी के अलावा बाजरा व मोठ के आटे को मिलाकर बनाई गई मिस्सी रोटी का इस इलाके में अत्यधिक चलन था। अधिकांश घरों में बाजरे की रोटी बनती थी। इस रोटी को चूल्हे के तवे पर अधकच्ची सेंकते हैं और फिर चूल्हे में जलती लकड़ी व गोबर की थेपरी की आग में सेंका जाता था। गरम-गरम बाजरे की रोटी पर देसी घी डालकर शक्कर या गुड़ के साथ सर्दियों में खूब खाते थे। सर्दी के मौसम में बड़ी, पापड़ की सब्जी के अलावा लहसुन की चटनी, केरिया सांगरी की सब्जी बनती थी। चौमासे में जब खेतों में अच्छी फसल होती है तो लोया, काकड़िया, ग्वार फली, काचरा व टींडसी की सब्जी के साथ बाजरे की रोटी खूब चलती थी।
छाछ में मिलाकर बनाते थे कूटेड़ी राबड़ी
गेहूं की रोटी मेहमान आने पर ही घर में बनती थी। कहीं-कहीं मेहमानों को बाजरे की रोटी पर घी शक्कर डालकर परोसी जाती थी। गर्मियों में मोठ बाजरे का आटा मिलाकर पहले दिन रखकर दूसरे दिन राबड़ी बनाते हैं। जिसे इस क्षेत्र में डोहा की राबड़ी कहते हैं। डोहा की राबड़ी में कच्चा प्याज मिलाकर मोठ बाजरे की रोटी के साथ सुबह खाते थे। सर्दियों में छाछ में बाजरे का आटा डालकर छाछ की राबड़ी व बाजरे को कूटकर छाछ में मिलाकर कूटेड़ी राबड़ी बनाते थे। गरम-गरम रोटी व गरम-गरम राबड़ी का आनंद ही कुछ और था।
मोठ की मिस्सी रोटी पर सुबह-सुबह चूंटियां (छाछ से निकाला गया मक्खन) लगाकर खाने की परंपरा थी। अब ऐसा मक्खन सिर्फ अमीरों के यहां काम आता है। शाम के समय अधिकांश घरों में मोठ बाजरी का खीचड़ा बनता था। पहले मोठ बाजरे को भिगो कर ओखली में कूटते हैं। ये खीचड़ा चूल्हे पर नहीं बल्कि घर के आंगन के एक किनारे चिकनी मिट्टी व गोबर से बने गोलाकार आरिया में गोबर की थेपड़ियां जलाकर मंदी आंच में माटी की हांडी में पकाते थे। खीचड़ा तैयार होने पर थाली में घी डालकर कढी या बड़ी की सब्जी के साथ खाते थे।
देसी घी, छाछ, दही के साथ शरीर की गर्मी नहीं बढ़ाता बाजरा
मोठ की रोटी व बाजरे की रोटी के साथ खाने से न रोटी की गर्मी होती और न ही पेट में गैस की बीमारी होती है। सूखा फोफलिया टींडसी, खेलरा काकड़िया सूखी ग्वार फली की सब्जी व ग्वार फली का रायता बाजरे की रोटी के साथ खाया जाता था। अब यह खानपान सिर्फ गांवों में मिलता है। शहरी तथा कस्बाई इलाकों की युवा पीढ़ी अब इसे पसंद नहीं करती। बाजरे की रोटी को देसी घी या छाछ, दही के साथ तथा बाजरे से बनी राबड़ी को कच्चे प्याज के साथ खाने से बाजरा शरीर की गर्मी नहीं बढ़ाता। कुंदन शर्मा बताते हैं कि अपने खेत में उपजा कर खाने वालों के अलावा शहरी तथा कस्बाई इलाकों की जनता की क्रय शक्ति से बाहर हो चुका है बाजरा और मोठ। क्योंकि अब बाजरा शहरों में 40 से 50 रुपए प्रति किलो तथा मोठ ₹80 किलो के भाव से बिकता है।