नई दिल्ली. अगर दुनिया नहीं सम्भली तो पर्यावरण के अभिन्न अंग जुगनुओं की की लाशों के ढेर लगने से इनकार नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा हुआ तो दुनिया जलवायु जनित दुर्भिक्ष की अपेक्षा परागण के अभाव में पैदा होने वाली समस्या के चलते भुखमरी के कगार पर पहुंचने से ज्यादा दूर नहीं है।
हमले की आशंका होते ही चमकने लगते हैं जुगनू
असल में मौसम के बदलाव का संकेत देने वाले जुगनू जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से खत्म होते जा रहे हैं। जुगनुओं की हर चमक का पैटर्न सहयोगी को तलाशने का प्रकाशीय संकेत होता है। जब छिपकली जैसे जीवों का उन पर हमला होता है तो वे रक्त की बूंदें उत्पन्न करते हैं जो जहरीले रसायन से युक्त होती हैं।
दुनियाभर में जुगनुओं के गायब होने का जो ट्रेंड देखा जा रहा है, लंडोर भी उससे अछूता नहीं है। इस साल जुलाई-अगस्त के महीने में ये चमकदार कीट मसूरी के लंडोर में अचानक नजर आए। जुगनू वुडस्टॉक स्कूल के आसपास चीड़ और ओक के जंगलों में भी देखे गए। आधी रात के बाद चिनार के पेड़ों पर भी इन्हें देखा गया।
रोशनी में नहीं होती गर्मी
जुगनू विचित्र कीट हैं क्योंकि इनके पेट में रोशनी उत्पन्न करने वाला अंग होता है। ये विशेष कोशिकाओं से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और इसे लूसीफेरिन नामक तत्व से मिला देते हैं। इससे रोशनी उत्पन्न होती है। रोशनी में गर्मी नहीं के बराबर होती है। जुगनुओं की रोशनी को बायोल्यूमिनिसेंस कहा जाता है। कीटों की प्रजाति में जुगनुओं की हिस्सेदारी दुनियाभर में 40 प्रतिशत है।
दुनिया में 2000 से अधिक प्रजाति
जुगनू कोलियोप्टेरा समूह के लैंपिरिडी परिवार से ताल्लुक रखते हैं। ये डायनासोर युग से पृथ्वी पर रहते हैं। जुगनुओं की 2,000 से अधिक प्रजातियां हैं। अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में ये मौजूद हैं। भारत के अलग-अलग हिस्सों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इन्हें हिंदी में जुगनू, बंगाली में जोनाकी पोका और असमिया में जोनाकी पोरुआ कहा जाता है। रात में निकलने वाले इन कीटों के पंख होते हैं जो इन्हें परिवार के अन्य चमकने वाले कीटों से जुदा करते हैं।
मकरंद हैं जुगनुओं का भोजन
जुगनू बदलते पर्यावरण के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। वे स्वस्थ वातावरण में ही जीवित रह सकते हैं। जुगनू वहीं रह पाते हैं, जहां पानी जहरीले रसायनों से मुक्त होता है। जुगनू मुख्य रूप से पराग या मकरंद के सहारे जीवित रहते हैं और बहुत से पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वैज्ञानिक उनके चमकने के गुण की मदद से कैंसर और अन्य बीमारियों का पता लगा रहे हैं। स्विट्जरलैंड के रिसर्चरों ने जुगनुओं को चमकने में मदद करने वाला प्रोटीन लिया और एक केमिकल में मिलाकर उसे ट्यूमर कोशिका मॉलेक्यूलर से जोड़ा गया तो यह चमक उठा।
वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि सभी जुगनुओं की संख्या घटने की बात कर रहे हैं। जुगनुओं की तेजी से घती आबादी पर चिंता भी जता रहे हैं लेकिन यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि आबादी कितनी घटी है लेकिन कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि उनकी संख्या सिकुड़ रही है और बहुत से स्थानों से जुगनू गायब हो चुके हैं। हालांकि ये भी माना जा रहा है कि वे वे ऐसे स्थानों पर चले गए हों जहां उनके रहने के लिए अनुकूल परिस्थितियां जैसे नमी और आर्द्रता हो।
रातों में बिजली की रोशनी से भटक जाते हैं जुगनू
जुगनुओं की आबादी कई कारणों से कम हो रही है। इनमें पेड़ों की कटाई और बढ़ते शहरीकरण को भी प्रमुख रूप से शामिल किया जा सकता है। प्रकाश प्रदूषण के कारण भी जुगनू एक-दूसरे का प्रकाश नहीं देख पाते। इससे अप्रत्यक्ष रूप से उनका जैविक चक्र प्रभावित होता है क्योंकि ऐसी स्थिति में वे अपना साथी नहीं खोज पाते। प्रकाश के कारण जुगनू रास्ता भटक जाते हैं। कई बार वे अंधे तक हो जाते हैं। कीटनाशकों ने भी जुगनुओं के सामने संकट खड़ा किया है। जुगनू जीवन का बड़ा हिस्सा लार्वा के रूप में जमीन, जमीन के नीचे या पानी में बिताते हैं।
मंडरा रहा है परागण में कमी का खतरा
जुगनू बदलती जलवायु का भी संकेत देते हैं। वैश्विक स्तर पर जलवायु की स्थितियां बदलने पर जुगनुओं का प्राकृतिक आवास और उनका फैलाव भी बदल रहा है। हो सकता है कि उन्होंने निचले हिमालय के इस क्षेत्र में प्रवास का समय बढ़ा लिया हो। एक अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वसंत ऋतु के गर्म होने से जुगनुओं का पीक समय पहले आ जाता है। जुगनू ऐसे समय में गायब हो रहे हैं जब दुनियाभर में पतंगों की आबादी कम हो रही है। इससे परागण में कमी का खतरा मंडरा रहा है। अगर यही स्थिति जारी रही तो दुनिया भर में फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।